Chankya Niti Book PDF Download In Hindi : सम्पूर्ण चाणक्य नीति

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Chankya Niti Book PDF Download In Hindi : सम्पूर्ण चाणक्य नीति

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Chankya Niti Book PDF : किसी कष्ट अथवा आपत्तिकाल से बचाव के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए। धन खर्च करके भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए, परंतु स्त्रियों और धन से भी आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं की रक्षा करे। मैं तीनों लोकों–पृथ्वी, अन्तरिक्ष और पाताल के स्वामी सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक परमेश्वर विष्णु को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूं। प्रभु को प्रणाम करने के बाद मैं अनेक शास्त्रों से एकत्रित किए गए राजनीति से संबंधित ज्ञान का वर्णन करूंगा।

प्राचीनकाल से हमारी यह परंपरा रही है कि ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए ग्रंथकार अपने आराध्य का स्मरण अवश्य करता है। इसे “मंगलाचरण’ कहा जाता है। आचार्य चाणक्य ने भी सर्वशक्तिमान प्रभु विष्णु को नमन करके इस ग्रंथ की रचना की है। विदित हो कि श्रीविष्णु पालनकर्ता हैं और “नीति “का प्रयोजन भी व्यक्ति और समाज की व्यवस्था देना है। चाणक्य ने अपने इस ग्रन्थ को राजनीति से संबंधित ज्ञान का उत्तम संग्रह बताया है। इसी संग्रह को बाद में विद्वानों और जन-सामान्य ने “चाणक्य नीति/ का नाम दिया।

“सत्तमः’ अर्थात श्रेष्ठ पुरुष, इस शास्त्र का विधिपूर्वक अध्ययन करके यह बात भली प्रकार जान जाएंगे कि वेद आदि धर्मशास्त्रों में कौन से कार्य करने योग्य बताए गए हैं और कौन से कार्य ऐसे हैं जिन्हें नहीं करना चाहिए। क्या पुण्य है और कया पाप है तथा धर्म और अधर्म क्‍या है, इसकी जानकारी भी इस ग्रंथ से हो जाएगी।

Chankya Niti Book In Hindi

मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि कुछ भी करने से पूर्व उसे इस बात का ज्ञान हो कि वह कार्य करने योग्य है या नहीं, उसका परिणाम क्या होगा? पुण्य कार्य और पाप कर्म क्या हैं? श्रेष्ठ मनुष्य ही वेद आदि धर्मशास्त्रों को पढ़कर भले-बुरे का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। यहां यह बात जान लेना भी आवश्यक है कि धर्म और अधर्म क्‍या है? इसके निर्णय में, प्रथम दृष्टि में धर्म की व्याख्या के अनुसार–किसी के प्राण लेना अपराध है और अधर्म भी, परंतु लोकाचार और नीतिशास्त्र के अनुसार विशेष परिस्थितियों में ऐसा किया जाना धर्म के विरुद्ध नहीं माना जाता, पापी का वध और अपराधी को दंड देना इसी श्रेणी में आते हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध की प्रेरणा दी, उसे इसी विशेष संदर्भ में धर्म कहा जाता है।

Sampurna Chankya Niti Details :

Book Chankya Niti In Hindi
Language Hindi
File Formate PDF
Size 4 MB
Pages 379

 

दुखी व्यक्तियों से व्यवहार रखने से चाणक्य का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति अनेक रोगों से पीड़ित हैं और जिनका धन नष्ट हो चुका है, ऐसे व्यक्तियों से किसी प्रकार का संबंध रखना बुद्धिमान मनुष्य के लिए हानिकारक हो सकता है। अनेक रोगों का तात्पर्य संक्रामक रोग से है। बहुत से लोग संक्रामक रोगों से ग्रस्त होते हैं, उनकी संगति से स्वयं रोगी होने का अंदेशा रहता है। जिन लोगों का धन नष्ट हो चुका हो अर्थात जो दिवालिया हो गए हैं, उन पर एकाएक विश्वास करना कठिन होता है। दुखी का अर्थ विषादग्रस्त व्यक्ति से भी है। ऐसे लोगों का दुख से उबरना बहुत कठिन हो जाता है और प्रायः असफलता ही हाथ लगती है। जो वास्तव में दखी है और उससे उबरना चाहता है, उसका सहयोग करना चाहिए। क्योंकि दुखी सेतो ही बचता है।

दुष्टा भार्या शठं मित्र भृत्यश्नोत्तदायक:।

ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशय:।।

दुष्ट स्वभाव वाली, कठोर वचन बोलने वाली, दुराचारिणी स्त्री और धूर्त, दुष्ट स्वभाव वाला मित्र, सामने बोलने वाला मुंहफट नौकर और ऐसे घर में निवास जहां सांप के होने की संभावना हो, ये सब बातें मृत्यु के समान हैं। 

जिस घर में दुष्ट स्त्रियां होती हैं, वहां गृहस्वामी की स्थिति किसी मृतक के समान ही होती है, क्योंकि उसका कोई वश नहीं चलता और भीतर ही भीतर कुढ़ते हुए वह मृत्यु की ओर सरकता रहता है। इसी प्रकार दुष्ट स्वभाव वाला मित्र भी विश्वास के योग्य नहीं होता, न जाने कब धोखा दे दे। जो नौकर अथवा आपके अधीन काम करने वाला कर्मचारी उलटकर आपके सामने जवाब देता है, वह कभी भी आपको असहनीय हानि पहुंचा सकता है, ऐसे सेवक के साथ रहना अविश्वास के घूंट पीने के समान है। इसी प्रकार जहां सांपों का वास हो, वहां रहना भी खतरनाक है। न जाने कब सर्पदंश का शिकार होना पड़ जाए।

आपदर्थे धन॑ रक्षेद्‌ दारान्‌ रक्षेद्धनैरपि।

आत्मानं सतत रक्षेद्‌ दारैरपि धनैरपि।।

चाणक्य का कहना है, मनुष्य को चाहिए कि वह आपत्तिकाल के लिए धन का संग्रह करे। लेकिन धनी व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि उनके लिए आपत्तियों का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि वे अपने धन से सभी आपत्तियों से बच सकते हैं, परंतु वे यह नहीं जानते कि लक्ष्मी भी चंचल है। किसी भी समय वह मनुष्य को छोड़कर जा सकती है, ऐसी स्थिति में यह इकट्ठा किया हुआ धन भी किसी समय नष्ट हो सकता है।

यस्मिन्‌ देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवा:।

नच विद्या55गम: वश्चित्‌ तं देशं परिवर्जयेत्‌।।

जिस देश में आदर-सम्मान नहीं और न ही आजीविका का कोई साधन है, जहां कोई बंधु-बांधव, रिश्तेदार भी नहीं तथा किसी प्रकार की विद्या और गुणों की प्राप्ति की संभावना भी नहीं, ऐसे देश को छोड़ ही देना चाहिए। ऐसे स्थान पर रहना उचित नहीं। ।8॥॥ किसी अन्य देश अथवा किसी अन्य स्थान पर जाने का एक प्रयोजन यह होता है कि से किसी भी बात की संभावना न हो, ऐसे देश या स्थान को तुरंत छोड़ देना चाहिए।

श्रोत्रियो धनिकः राजा नदी वैद्यस्तु पडचम:।

पज्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत्‌।।

जहां श्रोत्रिय अर्थात वेद को जानने वाला ब्राह्मण, धनिक, राजा, नदी और वैद्य ये पांच चीजें न हों, उस स्थान पर मनुष्य को एक दिन भी नहीं रहना चाहिए। 

धनवान लोगों से व्यापार की वृद्धि होती है। वेद को जानने वाले ब्राह्मण धर्म की रक्षा करते हैं। राजा न्याय और शासन-व्यवस्था को स्थिर रखता है। जल तथा सिंचाई के लिए नदी आवश्यक है जबकि रोगों से छुटकारा पाने के लिए वैद्य की आवश्यकता होती है। चाणक्य कहते हैं कि जहां पर ये पांचों चीजें न हों, उस स्थान को त्याग देना ही श्रेयस्कर है। 

चाणक्य कहते हैं कि जब सेवक (नौकर) को किसी कार्य पर नियुक्त किया जाएगा तभी पता चलेगा कि वह कितना योग्य है। इसी प्रकार जब व्यक्ति किसी मुसीबत में फंस जाता है तो उस समय भाई-बंधु और रिश्तेदारों की परीक्षा होती है। मित्र की पहचान भी विपत्ति के समय ही होती है। इसी प्रकार धनहीन होने पर पत्नी की वास्तविकता का पता चलता है कि उसका प्रेम धन के कारण था या वास्तविक।

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रु-संकटे।

राजद्धारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धव:।।

किसी रोग से पीड़ित होने पर, दुख आने पर, अकाल पड़ने पट शर्त व की ओर से संकट आने पर, राज सभा में, श्मशान अथवा किसी की मृत्यु के समय जो साथ नहीं छोड़ता, वास्तव में वही सच्चा बन्धु माना जाता है। ।2।। अकाल पड़ने और शत्रु द्वारा किसी भी प्रकार का संकट पैदा होने, किसी आदि में फंस जाने और मरने पर जो व्यक्ति श्मशान घाट तक साथ देता है, वही सच्चा बन्धु (अपना) होता है अर्थात ये अवसर ऐसे होते हैं जब सहायकों की आवश्यकता होती है। प्रायः यह देखा जाता है कि जो किसी की सहायता करता है, उसको ही सहायता मिलती है। जो समय पर किसी के काम नहीं आता, उसका साथ कौन देगा?

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिसेवते।

ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अधुुवं नष्टमेव हि।।

जो मनुष्य निश्चित को छोड़कर अनिश्चित के पीछे भागता है, उसका कार्य या पदार्थ नष्ट हो जाता है। ॥3॥॥

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